Wednesday, October 9, 2013

झुण्ड में शेरनीयां ..



एक मजदूरन
जब खेतों की आड़ पर
बैठी सुलगाती है एक बीड़ी
जलाती है अपने अरमानों को
फूंकती है खुद को और जमानों को
साथ ही ताक पे रखती है
एक सभ्यता और
ठंडे शुथूल पड़े
अपने ठेठ दर्द के दरारों को
ये मजदूरन नहीं
भेड़ियों के झुण्ड में शेरनीयां है ..

पुआलों के ढेरी में कुछ बोझ उठाती है
घर के खप्परों का
जब कभी खाना पकाते हुए
चूल्हे पर जब जल जाती है रोटियां
लेकर पल्लू में बड़े चाव से चबाती है वो रोटियां

पति के पैरों को दबाते हुए
पसीजे हाथ से निकले
आह को पी जाती है
और भेड़ की खाल पहने होता है
ऐसा भी कोई पति जो
निर्ममता से हत्या करता है
उनकी भावनाओ का
अपनी खोखली भुजाओं से

उलझे बालों में
धुल भरे गालों में
नमक की सुखी रेखाएं को पोंछती
घुंटने तक बंधी अपनी धोती में
कंधे पर एक मैला गमछा
जो हर बार बिन साबुन का धुलता हुआ
हाथों में जीवन की ढाल मतलब एक कुदाल
सर पर लेकर धान की सुनहली पोटली
लचकते कमर के साथ लम्बे डग भरती हुई
हमारे गवांर कह देने पर
खिलखिला जाती है
जैसे हमने कोई औदा दे डाला
अब हम तय करे गवांर हम या वो ..!