Thursday, January 23, 2014

केवल तुम और मैं ...

सिन्दूरी सांझ 
सुनहरे रंग लिए 
धीमे धीमे 
यादों की किरणें बिखेर रही थी, 
नीले चादर से आसमां 
मुझे ढकने को 
बेताब हो रही थी, 
सुर्ख मन 
एक ही रट लगाये हुई थी, 
कहीं से वो वक़्त लौट आये
जो मैंने तेरे साथ बिताई थी 
पर वक़्त ने 
भला कभी सुनी है 
तो आज कैसे सुनता 
बस मैं सोचती रह गयी 
और वक़्त 
फिर से आ धमका 
पर इसबार मैंने 
आहिस्ते खोली खिड़कियाँ मन की 
ताकि कोई झाँक न ले 
मुझमें और मेरी यादें में 
कोई बाँट न ले
इन लम्हों को 
जिसमें मैं चाहती हूँ  
केवल तुम रहो साथ मेरे
केवल तुम और मैं !!

हौसलों का हाँथ ...

साहस के टीले पर
परिंदे जब आसमां को चूमते है,
वास्तिवकता में उसके राहों में 
न जाने कितने
औजार उसे छिन्न भिन्न  करने को
आड़े आते है,
न जाने कितने दफे 
उनके जिस्म का हिस्सा  
छोड़ता है उसका साथ, 
पर वो पकड़ कर 
हौसलों का हाँथ 
मंजिल को पाकर ही लेते है, अपनी सांस !

कल्पना के पन्नो से ...

तेरे यादों का बस्ता 
सँभालते हुए 
अंतर्मन को होती है, 
एक असीम सी 
सुखद अनुभूति, 
बस्ते के 
हर हिस्से के 
जर्रे जर्रे में 
चकमता आफ़ताब का नूर
जैसे हर पन्नों पर 
मौजूद हो तुम, 
जिसे जब चाहा 
बटोरकर 
समेट लिया खुद में,
ना किसी ने रोका 
न टोका ,
बरसों तक 
इसी वादे के साथ 
तेरे साँसों के साथ 
बंधे रहेंगे हम,
 
जानते हो 
बहुत गहरे रंग छोड़े हैं प्रेम ने 
पुराने कुछ लम्हों में तेरे, 
जैसे 
रोकर मुस्कुराना,
ग़मों से लड़ना 
और फिर उसी को जीत लाना, 
ख्वाबों संग फड़फड़ाना 
और उसी फड़फड़ाते परों से 
आसमां को नाप लाना,
और ऐसे कई अनगिनत रंग 
 पर ज़रा ठहरो 
भागो न ऐसे 
मैं खोलू और गठरिया
जो कह गए थे, 
फुसफुसाते हुए लम्हे सुहाने, 
दूषित बड़ी है फिजाये, 
जरा सम्भलकर
धीमे धीमे साँसों लेना और छोड़ना 
क्योंकि मुझे 
तुम्हे ही सहेजना है
अपने कल्पना के पन्नो से 
जो हमारी कुछ कही अनकही यादें से  
थाम के हाँथ निकलना चाहता है !!

अपने वजूद को रोता पहाड़ ...

मैंने देखा है, 
रेंगते हुए उन पहाड़ो को, 
जो अपनी हिम्मत तले 
टकराते है उन तुफानो से,
जो 
उसके वजूद को मिटाने 
बिन दस्तक 
टूट पड़ते हैं उसपे,
पर 
जब वही पहाड़ उगलता है लावा 
अपने ह्रदय से  
तब दूर दूर तक फैलती है, चिंगारी उसकी 
जो हमें 
उसके ताकत से रुबरु कराती है, 
देखो 
आज वही मूक बनकर 
अपने निशां को खत्म होते देख कर 
उफ्फ़ भी न करता है,
ये वेदना कौन सुनेगा उसका ?
तू या मैं 
या अपने ही अस्तिव को 
बचाती ये प्रकृति !!

"मै" ...

कभी कभी मै अपने
"मै"से उलझ पड़ती हूँ,
मै उसे अपने जहन मे
एक दिये की लौ सा निरंतर
जलाये रखना चाहती हूँ,
जो मुझे और सबको
प्रकाशित करता रहे,
पर मेरा "मै"
कभी कभी
ताना बाना सुन समाज की
होता है क्षतिग्रस्त,
दहाड़ता होकर विचलित,
एक चिंगारी बनने की
कोशिश करता है,
जिससे विनाश की संभावना
प्रतिकूल होने लगती है,
यह विनाशकारी नहीं
सर्वशक्तिमान है,
इसे सहेजना है,
अंतर्मन में
"मै" एक शक्ति है,
जो भरपूर उर्जा देती है,
जगाती है हर पल
नया आत्मविश्वास !